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देवता: आप्रियः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

स्वा॒ध्यो॒३॒॑ वि दुरो॑ देव॒यन्तोऽशि॑श्रयू रथ॒युर्दे॒वता॑ता। पू॒र्वी शिशुं॒ न मा॒तरा॑ रिहा॒णे सम॒ग्रुवो॒ न सम॑नेष्वञ्जन् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svādhyo vi duro devayanto śiśrayū rathayur devatātā | pūrvī śiśuṁ na mātarā rihāṇe sam agruvo na samaneṣv añjan ||

पद पाठ

सु॒ऽआ॒ध्यः॑। वि। दुरः॑। दे॒व॒ऽयन्तः॑। अशि॑श्रयुः। र॒थ॒ऽयुः। दे॒वऽता॑ता। पू॒र्वी इति॑। शिशु॑म्। न। मा॒तरा॑। रि॒हा॒णे इति॑। सम्। अ॒ग्रुवः॑। न। सम॑नेषु। अ॒ञ्ज॒न् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:2» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् लोग कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (स्वाध्यः) सुन्दर विचार करते (देवयन्तः) विद्वानों को चाहते हुए जन (देवताता) विद्वानों के अनुष्ठान या सङ्ग करने योग्य व्यवहार में (रथयुः) रथ को चाहनेवाले के तुल्य (रिहाणे) स्वाद लेते हुए (पूर्वी) अपने से पूर्व हुए (मातरा) माता-पिता (शिशुम्, न) बालक के तुल्य (समनेषु) संग्रामों में (अग्रुवः) आगे चलती हुई सेनाएँ (न) जैसे, वैसे (दुरः) द्वारों का (वि, अशिश्रयुः) विशेष आश्रय करते हैं और (सम्, अञ्जन्) चलते हैं, वे सुख करनेवाले होवें ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सम्यक् विचार करते हुए, विद्वानों के सङ्ग में प्रीति रखनेवाले यज्ञ के तुल्य परोपकारी, माता-पिता के तुल्य सब की उन्नति करते और संग्रामों को जीतते हुए, न्याय से प्रजाओं का पालन करते हैं, वे सदा सुखी होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

अन्वय:

ये स्वाध्यो देवयन्तो जना देवताता रथयुरिव रिहाणे पूर्वी मातरा शिशुं न समनेष्वग्रुवो न दुरो व्यशिश्रयुः समञ्जँस्ते सुखकारकाः स्युः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वाध्यः) सुष्ठु चिन्तयन्तः (वि) (दुरः) द्वाराणि (देवयन्तः) देवान् विदुषः कामयन्तः (अशिश्रयुः) श्रयन्ति (रथयुः) रथं कामयमानः (देवताता) देवैरनुष्ठातव्ये सङ्गन्तव्ये व्यवहारे (पूर्वी) पूर्व्यौ (शिशुम्) बालकम् (न) इव (मातरा) मातापितरौ (रिहाणे) स्वादयन्त्यौ (सम्) (अग्रुवः) अग्रं गच्छन्त्यः सेनाः (न) इव (समनेषु) सङ्ग्रामेषु (अञ्जन्) गच्छन्ति ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सम्यग्विचारयन्तो विद्वत्सङ्गप्रियाः यज्ञवत्परोपकारका मातापितृवन्सर्वानुन्नयन्तः संग्रामाञ्जयन्तो न्यायेन प्रजाः पालयन्ति ते सदा सुखिनो जायन्ते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे सम्यक विचार करणारी, विद्वानांबरोबर प्रेमाने राहणारी, यज्ञाप्रमाणे परोपकारी, माता-पित्याप्रमाणे सर्वांची उन्नती करणारी व युद्ध जिंकणारी असून न्यायाने प्रजेचे पालन करतात ती सदैव सुखी होतात. ॥ ५ ॥